Dharmendra soni
ग़ज़ल क्या दिल है चाकर का
पुजारी हूँ मैं आखर का
दीया हूँ तेरी चौखट का
न भीतर का न बाहर का
लकीरें हैं जो चुल्लू की
उठाती बोझ सागर का
पड़ी तुझको तो पांवों की
इधर रोना है चादर का