Thursday, May 27, 2010

ग़ज़ल " गुफ्तगू - ऐ - यार "


ग़ज़ल क्या दिल है चाकर का

पुजारी हूँ मैं आखर का

दीया हूँ तेरी चौखट का

न भीतर का न बाहर का

लकीरें हैं जो चुल्लू की

उठाती बोझ सागर का

पड़ी तुझको तो पांवों की

इधर रोना है चादर का